Sunday, March 02, 2008

Jashn

( google transliteration software के लिए maafi chahata हूँ, पर kcuhh शब्दों को ये translate ही नही कर रहा hai। Nukte और आधे अक्षरों मे भी pareshaani है, फिर भी कविता आप समझ सकते है ऐसे aasha करता हूँ)

हार के इस घने जंगल मे
खुशी-धूप बिरले ही आती है
अंधेरे की पड़ी आदत मुझे
हवा करुण गीत गाती है

क्यों उस छुपे सूरज को खोजूँ
क्यों अंधेरे से पार पाऊँ
अब तो यहीं थाम लूँ कदम
और दुःख का जशन मनाऊ

चल चल कर थक गया
अब तो खीज बहुत आती है
हर सड़क नाप आया
मंजिल एक ही आती है

क्यों उस मृग-मुकाम को खोजूँ
क्यों ज़िंदगी बे-सार banaoon
अब तो यहीं थाम लूँ कदम
और दुःख का जशन मनाऊ


मध्यम stariya हो गया हूँ
कभी mujhme भी aag थी
हार से haara हुआ हूँ
इस ज्वाला मे भी ताप थी

kyon ख़ुद को bhatti मे jhokoon
क्यों जीत की आस lagaoon
अब तो यहीं थाम लूँ कदम

और दुःख का जशन मनाऊ

duniya को dikhaane की खातिर
जाने क्या क्या jatan किया
जब andhera ghira आख़िर
सोचा! ख़ुद के लिया कब जिया?

kyonkar कुछ बन के dikhaoon
क्यों सबसे muhar lagwaaon
अब तो यहीं थाम लूँ कदम
और दुःख का जशन मनाऊ

हार के majnoo यहाँ बहुत सारे है
जशन manate ये, ख़ुद से हारे है
थोड़ा निराश हूँ बस, पर mujh निराश को खाने बैठे
यहाँ bhediye बहुत सारे है

क्यों tham कर gir jaaon
क्यों keechad मे sang इनके , mauji shokar बन jaaon

ladkhadaye ज़रूर, न thamenge ये कदम
अब तो मंजिल पाकर ही होगा जीत का जशन

4 comments:

Vinod Khare said...

Abe poem mat padhaya karo. Verse dekhte hi mere ko kuchh kuchh hone lagta hai. Achhi hogi, manta hoon. Bahut achhi hoti but poetry really is beyond me. :((

Ashita said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

Aneesh, mujhe achchi lagi. Kuch lines tumne sms bhi ki thi. Maine toh maan liya tha ki iske pehle tumne Bachchan sahab ki kavita bheji thi, ab bhi kinhi us padvi ke kavu ki hogi :)

Bahut achchi lagi.

Unknown said...

Kavi*