Wednesday, March 31, 2010

हार के कहकहे

जिस ज़मी पर नीव रखी थी ,
वह मंज़र ही बदल चुका है,
जिस घात पे मेरी नाव बंधी थी ,
वह समंदर ही बदल चुका है,

कैसे अभियंता फिर निर्माण करेंगे ?
कैसे लहरों को पार करेंगे?

जब मै खुद को ही भूल चुका हूँ,
गैर मुझे क्या याद करेंगे?

जिसने जागीर मेरे नाम करी थी,
वह राजकुंवर ही बदल चुका है,
जिस दम पर शर्त लगी थी,
वह हुनर ही बदल चुका है,

कैसे फिर खुशहाली के वाडे करेंगे?
कैसे ऊचाईयों के इरादे करेंगे?

जब मै खुद को ही भूल चुका हूँ,
गैर मुझे क्या याद करेंगे?

खत्म, जितनी भी साँसें बची थी,
डूबने का क्रम अब रुक चुका है,
जिस आज ने मेरी कहानी रची थी,
वह इस दुनिया का कल हो चुका है,

मेरे वंशज मेरी हारों की किस्ते भरेंगे,
अंतिम संस्कार पुराने रिश्ते करेंगे,

मै खुद तो भूल जाऊँगा, मगर,
गैर मेरी असफलताओं की - बातें ज़रूर करेंगे .

3 comments:

Ashita said...
This comment has been removed by the author.
FINDING SPACE said...

well deserve applause ....vah vah

Anonymous said...

bahut vadiya dost....kabil-e-treef